Friday, April 11, 2025

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

गीतिका: बिना नाव पतवार हुए हैं. -संजीव 'सलिल'

गीतिका: संजीव 'सलिल' बिना नाव पतवार हुए हैं. क्यों गुलाब के खार हुए हैं. दर्शन बिन बेज़ार बहुत थे. कर दर्शन बेज़ार हुए हैं. तेवर बिन लिख रहे तेवरी. जल बिन भाटा-ज्वार हुए हैं. माली लूट रहे बगिया को- जनप्रतिनिधि बटमार हुए हैं. कल तक थे मनुहार मृदुल जो, बिना बात तकरार हुए हैं. सहकर चोट, मौन मुस्काते, हम सितार के तार हुए हैं. महानगर की हवा विषैली. विघटित घर-परिवार हुए हैं. सुधर न पाई है पगडण्डी, अनगिन...

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

कविता: कायस्थ -प्रतिभा

pratibha_saksena@yahoo.com 'चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म. गुप्त चित्र निज देख ले,'सलिल' धन्य हो आत्म.' आचार्य जी, 'गागर मे सागर' भरने की कला के प्रमाण हैं आपके दोहे । नमन करती हूँ ! उपरोक्त दोहे से अपनी एक कविता याद आ गई प्रस्तुत है - कायस्थ कोई पूछता है मेरी जाति मुझे हँसी आती है मैं तो काया में स्थित आत्म हूँ ! न ब्राह्मण, न क्षत्री, न वैश्य, न शूद्र , कोई जाति नहीं...