चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'
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चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता...
शनिवार, 24 जुलाई 2010
कायस्थ,
चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल',
दोहा,
परमब्रम्ह,
सृष्टि
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