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'चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म.
गुप्त चित्र निज देख ले,'सलिल' धन्य हो आत्म.'
आचार्य जी,
'गागर मे सागर' भरने की कला के प्रमाण हैं आपके दोहे । नमन करती हूँ !
उपरोक्त दोहे से अपनी एक कविता याद आ गई प्रस्तुत है -
कायस्थ
कोई पूछता है मेरी जाति
मुझे हँसी आती है
मैं तो काया में स्थित आत्म हूँ !
न ब्राह्मण, न क्षत्री, न वैश्य, न शूद्र ,
कोई जाति नहीं मेरी,
लोगों ने जो बना रखी हैं !
मैं नहीं जन्मा हूँ मुँह से,
न हाथ से, न पेट से, न पैर से,
किसी अकेले अंग से नहीं !
उस चिद्आत्म के पूरे तन
और भावन से प्रकटित स्वरूप- मैं,
सचेत, स्वतंत्र,निर्बंध!
सहज मानव, पूर्वाग्रह रहित!
मुझे परहेज़ नहीं नये विचारों से,
ढाल लेता हूँ स्वयं को
समय के अनुरूप !
पढ़ता-लिखता,
सोच-विचार कर
लेखा-जोखा करता हूँ
इस दुनिया का !
रचा तुमने,
चेतना का एक चित्र
जो गुप्त था तुम्हारे चित्त में,
ढाल दिया उसे काया में!
कायस्थ हूँ मैं!
प्रभु!अच्छा किया तुमने,
कि कोई जाति न दे
मुझे कायस्थ बनाया !
- प्रतिभा.
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आदरणीय आचार्य जी ,
महराज चित्रगुप्त को नमन करते हुए मैं आदरणीया प्रतिभा जी से प्रेरित होकर की राह में चल रहा हूँ |
कायस्थ
मनुज योनि के सृजक हैं, ब्रह्माजी महराज |
सकल सृष्टि उनकी रची, उनमें जग का राज ||
मुखारबिंदु से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय पूत |
वैश्य जनम है उदर से, जंघा से सब शूद्र ||
धर्मराज व्याकुल हुए, लख चौरासी योनि |
संकट भारी हो रहा, लेखा देखे कौन |
ब्रह्माजी को तब हुआ, भगवन का आदेश |
ग्यारह शतकों तप करो , प्रकटें स्वयं यमेश ||
काया से उत्त्पन्न हैं, कहते वेद पुराण |
व्योम संहिता में मिले , कुल कायस्थ प्रमाण ||
चित्त साधना से हुए , गुप्त रखें सब काम |
ब्रह्माजी नें तब रखा, चित्रगुप्त शुभ नाम ||
ब्राह्मण सम कायस्थ हैं , सुरभित सम सुप्रभात |
ब्रह्म कायस्थ जगत में, कब से है विख्यात ||
प्रतिभा शील विनम्रता, निर्मल सरस विचार |
पर-उपकार सदाचरण, इनका है आधार ||
सबको आदर दे रहे, रखते सबका मान |
सारे जग के मित्र हैं, सदगुण की ये खान ||
दुनिया में फैले सदा, विद्या बिंदु प्रकाश |
एक सभी कायस्थ हों, मिलकर करें प्रयास ||
कायस्थों की कामना, सब होवें कायस्थ |
सूर्य ज्ञान का विश्व में, कभी ना होवे अस्त ||
सादर,
--अम्बरीष श्रीवास्तव (Architectural Engineer)
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